कामयाब होने की चाहत में
सब धन-दौलत के लिए लड़े
इन अरमानों को पूरा करने
हम भी नौकर बनने निकल पड़े।
शांत और सुखमय जीवन की
ख्वाहिश मन में दबी रही
धन अर्जन जीवन का लक्ष्य है
आगे कुछ ना गलत सही।

जीवन भर का पढ़ा-लिखा
नौकरी पाने का जरिया था
भविष्य के सपने देख रहे थे
गुजरा कल एक दरिया था
कच्ची रोटी खाने को
हर दिन हम मजबूर हुए
पेट की भूख ना हुई खत्म
जिस दिन हम घर से दूर हुए।
छोटी खुशियां पाने को
ना मेहनत से कतराते है
हम रहते है दूर घर से
भूखे ही सो जाते है।
“माँ की रसोई” भोजनालय
अब एकमात्र सहारा है
अकेलेपन की आदत सी है
कमरे का चूहा भी अब प्यारा है।
बचपन की सूनी गलियां
आज भी इंतजार करती है
हम भूल ना जाएं उनको
इसी बात से डरती है।
अगर बेटियां घर का हीरा है
तो बेटे भी मोती है
कौन कहता है सिर्फ
*बेटियां विदा होती है।*।
Guest Post by – दिव्यांशु मिश्रा (divyanshu0706@gmail.com)
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